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Saturday, October 27, 2012

भगवान् श्री राम का मंत्री वर्ग

भगवान्  श्री राम के मंत्री वर्गों को जो भक्त जन प्रभात एवं सांयकाल में नित्य स्मरण करते हैं,सो अचल श्री रामभक्ति को पाते हैं और अपने परम भक्त मंत्रियों के स्मरण करने से श्री राघव भी अनायास ही बिना किसी प्रयास के ही प्रसन्न हो जाते हैं!अतः भगवान् राम की प्रसन्नता से दुस्तर संसार सागर से तर जाते हैं! पूज्य मंत्रीवर्ग की सूची निम्नलिखित है-
  1. श्री धृति जी 
  2. श्री जयंत जी 
  3. श्री विजय जी 
  4. श्री राष्ट्रवर्धन जी 
  5. श्री सौराष्ट्र जी 
  6. श्री अशोक जी 
  7. श्री धरम पालक जी 
  8. श्री सुमंत्र जी  

Sunday, October 14, 2012

विशवास घाती गौतम की कथा भाग २

राज्धार्मा ने आगे कहा यहाँ से तीन योजन की दूरी पर मेरे राक्षसराज विरूपाक्ष नामक मित्र रहते हैं!मेरे कहने से आप उन्हीं के पास जाइये!निस्संदेह वे आपकी मनोवांछित कामनाएं पूरी करेंगे!उसके ऐसा कहने पर गौतम विरूपाक्ष के नगर की ओर चल दिया!अब उसकी थकावट मिट चुकी थी!रास्ते में मीठे फल खाता हुआ वह तेज़ी से आगे बढ़ने लगा!और उसके नगर में पहुँच गया!
विरूपाक्ष को उसके मंत्रियों ने सूचना दी की आपके मित्र ने अपने एक प्रिय अतिथि को आपके पास भेजा है!समाचार पाते ही राजा ने उसको बुला लाने की अनुमति दे दी!गौतम सेवकों सहित शीघ्र ही राजमहल में जा पहुंचा!राजा ने उससे उसका नाम,गौत्र और आने का प्रयोजन आदि पूछा!ब्राह्मण  बोला मेरा नाम गौतम है!मेरा जनम तो हुआ मध्य प्रदेश मेंहुआ  मगर मैं भीलों के प्रदेश में रहता हूँ!मेरी स्त्री भी शुद्र जाती की है और मुझसे पहले दुसरे की पत्नी रह चुकी है!यह सुनकर राक्षसराज मन ही मन सोचने लगा की --क्या करना चाहिए?यह जन्म से तो ब्राह्मण है और साथ ही राज्धर्मा का सुहृद है!उन्होंने ही इसे मेरे पास भेजा है!अतः उनका प्रिय कार्य अवश्य करूंगा! आज कार्तिकी पूर्णिमा है ,आज के दिन मेरे यहाँ हजारों ब्राह्मण भोजन करेंगे !इसे भोजन कराकर धन दे देना चाहिए!
तदन्तर,भोजन के समय हजारों की संख्या में विद्वान ब्राह्मण स्नान करके रेशमी वस्त्र पहने वहां आ पहुंचे!राजा के सेवकों ने जमीन पर कुशों के सुन्दर आसन बिछा दिए!जब ब्राह्मण उन पर बैठ गए तो राजा विरूपाक्ष ने उनका विधिवत पूजन आदि किया!सबको चन्दन निवेदन करके फूल मालाएं पहनाई!इसके बाद उसने हीरों से जड़ी हु थालियों में घी से बने हुए मीठे पकवान परोसकर उनके आगे रख दिए!भोजन के बाद ब्राह्मणों के सामने रत्नों की ढेरी लगाकर विरूपाक्ष ने कहा-ब्राह्मणों !आप लोग अपनी इच्छा और शक्ति अनुसार इन रत्नों को उठा लें और जिसमें आपने भोजन किया है,उस स्वर्णमय पात्र को भी अपने साथ लेते जायें !आज दिनभर आप लोगों को राक्षसों से कहीं कोई भय नहीं है,मौज करते हुए अपने अपने स्थानों को चले जाएँ!देर न करें!
यह सुनकर ब्राह्मण लोग उत्तम उत्तम रत्नों को लेकर चारों दिशाओं कीओर भाग चले!गौतम भी स्वर्ण का भारी बोझ लेकर जल्दी जल्दी चलता हुआ बरगद के वृक्ष के पास आ गया!वह बड़ी कठिनाई से उस भार को ढो रहा था !थकान से उसे भूख प्यास भी लग आई थी!राज्धर्मा ने पंखों से हवा कर के उसकी थकावट दूर की और उसके लिए भोजन का प्रबंध किया!भोजन और विश्राम करने के बाद गौतम ने सोचा -मैंने लोभवश स्वर्ण का भारी बोझ उठा लिया है!अभी दूर जाना हैऔर रास्ते में खाने के लिए भी मेरे पास कुछ नहीं है क्यों न मैं इस राज्धर्मा पक्षी कोही  मारकर अपने साथ ले लूं और शीघ्रता पूर्वक यहाँ से चल दूं!
उस समय वह पक्षी गौतम पर विश्वास कर के उसी के पास सो रहा था!उधर वह दुष्ट और कृत्घन (किये हुए उपकार को न मानने वाला )उसे मार डालने की साजिश रच रहा था!उसके सामने ही आग जल रही थी! उसी में से उसने एक जलती हुई लकड़ी निकाल कर निश्चिन्त सोते हुए राज्धार्मा को मार डाला!उसने मरे हुए पक्षी के पंख और बाल नोचकर आग में पकाया और साथ में ले लिया!फिर सोने की गठरी सर पर लाद कर बड़ी तेज़ी घर की और चल पड़ा!दूसरे दिन विरूपाक्ष ने अपने पुत्र से कहा-बेटा!आज पक्षी राज राजधर्म का दर्शन नहीं हुआ!वे प्रतिदिन प्रातःकाल मुझसे मिलने को आते थे!दो संध्याएँ बीत गयीं हैं लेकिन वे मेरे घर नहीं पधारे?तुम पता लगाओ!कहीं ऐसा न हो वह अधम ब्राह्मण उन्हें मार डाले!वह बड़ा निर्दयी और दुराचारी जान पड़ता था!नीच गौतम यहाँ से लौटकर फिर उन्हीं के पास गया था!तुम शीघ्रता से राज्धार्मा के स्थान पर जाओ और पता लगाओ की वे जीवित हैं भी या नहीं?
पिता की ऐसी आज्ञा पाकर जब वह निर्धारित स्थान पर गया तो वहां राज्धार्मा का कंकाल पड़ा दिखाई दिया!यह देखकर राक्षस का पुत्र रो पड़ा और पूरी शक्ति के साथ गौतम का पीछा किया!थोड़ी ही दूरी पर उसने गौतम को पकड़ लिया!उसके साथ ही पक्षी की पंखों और हड्डियों से रहित लाश भी मिल गयी!तदन्तर राक्षसों ने गौतम को पक्षी के शव सहित विरूपाक्ष राक्षस के सामने प्रस्तुत किया!मित्र की यह दशा देख कर राजा विरूपाक्ष मंत्रियों और पुरोहित सहित फूट फूट कर रोने लगा!राज महल में बड़ा कोहराम मचा!सारे नगर में मातम छा गया!तदन्तर,राजा ने कुपित हो कर कहा-बेटा!इस पापी का वध कर डालोऔर सारे राक्षस इसके मांस के टुकड़े बांटकर खा लो!
राक्षसराज के इस प्रकार कहने पर भी राक्षसों को उस पापी का मांस खाने की इच्छा नहीं हुई!उन्होंने सर झुका कर प्रणाम करते हुए कहा-महाराज!आप हम लोगों को इस का पाप भक्षण करने को मत दीजिये!राजा ने कहा -बहुत अच्छा!तुम लोग इसपापी के  टुकडे टुकडे करके लुटेरों को दे दो!राक्षस आज्ञा पाते ही हाथ में त्रिशूल लेकर उसपापी  पर टूट पड़े और उसके टुकडे टुकडे कर के लुटेरों को देने लगे किन्तु तब  लुटेरोंने भी यह कहते हुए इनकार कर दिया कि मांसाहारी जीव भी कृतघ्न का मांस नहीं खाते!शराबी,चोर,प्रतिज्ञा भंग करने वाले मनुष्य के लिए भी पाप से छूटने का प्रायश्चित बताया गया है किन्तु कृतघ्न के उद्धार का कोई उपाय नहीं कहा गया है!
तदन्तर,विरूपाक्ष ने राज्धार्मा पक्षी के लिए एक चिता तैयार करवाई!फिर पक्षी की लाश को उसमे रख कर उसमे आग लगवा दी और विधिपूर्वक उसका दाह कर्म संपन्न किया!उसी समय दक्ष कन्या सुरभि देवी वहां आई और आसमान में ऊपर खड़ी  हो गयी!उनके मुख से दूधमिश्रित झाग निकल कर राज्धर्मा की चिता पर गिरा और उसके स्पर्श से वह फिर से जीवित हो उठा!वह उड़ कर विरूपाक्ष के पास पहुंचा और दोनों मित्र गले मिले!इतने में ही देवराज इन्द्र भी विरूपाक्ष के नगर में आ पहुंचे और उससे बोले की बड़े सौभाग्य की बात है कि तुम्हारे द्वारा राज्धर्मा को जीवन मिला!इसके बाद राज्धर्मा ने इन्द्र को प्रणाम करके कहा-देवेन्द्र!यदि आपकी मुझ पर कृपा हो तो मेरे मित्र गौतम को जीवित कर दीजिये!इन्द्र ने उसकी बात मान ली और अमृत छिड़क कर उस ब्राह्मण को जीवित कर दिया!गौतम के जीवित होने पर राज्धर्मा ने प्रसन्नतापूर्वक उसे मित्र भाव से गले लगाया और उस पापी को धन सहित विदा कर के वह अपने स्थान पर आ गया   

Saturday, October 13, 2012

विश्वासघाती गौतम की कथा भाग १

मध्य प्रदेश का एकगौतम नामक  ब्रह्मण था,जिसने वेद बिलकुल नहीं पढ़ा था एक दिन वह कोई संपन्न गाँव देख कर उसमे भीख मांगने के लिए गया!उस गाँव में एक डाकू रहता था जो बहुत ही धनि,ब्राह्मंभाक्त एवं दानीथा !ब्राह्मण ने उसी के घर जा कर भिक्षा की याचना की!डाकू ने ब्राह्मण को रहने के लिए एक घर देकर वर्ष भर निर्वाह करने के योग्य अन्न की भिक्षा का प्रबंध आर दिया!उसकी सेवा में एक नवयुवती दासी भी दे दी!
डाकू से यह सारी चीज़े पा कर गौतम बहुत ही प्रसन्न हुआऔर दासी के साथ आनंद पूर्वक रहने लगा !अब गौतम भी डाकुओं की तरह ही वन में विचरने वाले हंसों का शिकार करने लगा!धीरे धीरे दुष्टों की संगत में रह कर उसके सत्य,अहिंसा,दया आदि ब्रह्मनोचित सभी सद्गुण नष्ट हो गए और वह पूरा डाकू बन गया!इस प्रकार वहां उस गाँव में रहते हुवे उसे कई वर्ष बीत गए 
एक दिन उस गाँव में एक दूसरा ब्राह्मण आया जो की स्वाध्याय परायण,पवित्र,विनयी,वेदों का पारंगत विद्वान् और ब्रह्मचारी था!वह गौतम के ही गाँव का रहने वाला और उसका प्रिय मित्र था!शुद्र का अन्न नहीं खाता था,इसलिए उस डाकुओं से भरे उस गाँव में ब्राह्मण के घर की खोज करता हुआ सब और घूम रहा था!संयोगवश,घूमते घूमते वह गौतम के घर ही आ पहुंचा;इतने ही में गौतम भी वहां आ गया!ब्राह्मण ने देखा गौतम के कंधे पर मरे हुवे हंस की लाश है और हाथ में धनुष बाण है!उसका सारा शरीर खून से रंग गया है,देखने में वह राक्षस सा जान पड़ता है और ब्राहमानोचित सद्गुणों से भ्रष्ट हो चूका है!इस अवस्था में पड़े हुए गौतम को पहचान कर आगंतुक ब्राह्मण को बड़ा संकोच हुआ!उसने उसे धिक्कारते हुए कहा -'अरे!तू मोहवश यह क्या कर रहा है?ब्राह्मण हो कर डाकू कैसे हो गया?जरा अपने पूर्वजों को याद कर,उनकी कितनी ख्याति थी,वे कैसे वेदों के पारगामी थे और तू उन्ही के वंश में पैदा हो कर कुलकलंक निकला !अब भी तो अपने को पहचान और इन लुटेरों में रहना छोड़ दे !
अपने हितैषी  मित्र के इस प्रकार समझाने पर गौतम को शर्म आई और उसने अपने मित्र को विश्वास दिलाया की मैं कल से ही डाकू वृत्ति छोड़कर धन कमाने जाऊँगा!कल सुबह मैं तुम्हारे साथ ही रवाना हो जाऊंगा!ब्राह्मण दयालु था,गौतम के अनुरोध से उसके यहाँ ठहर गया,मगर वहां की किसी भी वास्तु को उसने हाथ से छुआ तक नहीं!यधपि वह बहुत भूखा भी था और भोजन करने की उससे प्रार्थना भी की गयी थी किन्तु किसी भी तरह वहां का अन्न ग्रहण करना उसने स्वीकार नहीं किया 
सवेरा होने पर गौतम अपने मित्र ब्राह्मण के साथ ही घर से धन कमाने के लिए चल दिया!जाते जाते वह एक दिव्य वन में पहुंचा,जो बड़ा ही रमणीय था!वहां  के सभी वृक्ष फूलों से भरे थे!इतने में ही उसकी नज़र एक विशाल बरगद के वृक्ष पर पड़ी जो चारों और मंडलाकार फैला हुआ था!उस मनोरम वृक्ष को देखकर गौतम बहुत प्रसन्न हुआ और निकट जा कर उसकी छाया में बैठ गया!पवित्र वायु के स्पर्श से उसके मन को बड़ी शान्ति मिली और वह सुख का अनुभव करता हुआ वहीँ लेट गया !
उसी वृक्ष पर एक राज्धार्मा नामक एक पक्षी रहता था!गौतम को उस समय बड़ी भूख लग रही थी इसलिए उस पक्षी को आया देख उसने उसे मार डालने के विचार से उसकी और देखा !
तब राज्धर्मा ने उससे कहा -विप्रवर !यह मेरा घर है मैं आपका स्वागत करता हूँ !  सूर्यास्त हो गया है रात में मेरा आतिथ्य स्वीकार कर के कल सुबह चले जाना मैं मह्रिषी कश्यप का पुत्र हूँ और मेरी माता दक्ष प्रजापति की पुत्री है! मैं ब्रह्मा जी का मित्र हूँ!आप जैसे गुणवान अतिथि का मैं स्वागत करता हूँ!
यह कहकर गौतम के  बैठने के लिए फूलों का आसन बना दिया!खाने के लिए बड़ी बड़ी मछलियाँ ला कर रख दी और उन्हें पकाने के लिए आग भी जला दी!भोजन कर के जब ब्राह्मण तृप्त हो गया तब पक्षी उसकी थकावट दूर करने के लिए अपने पंखों से हवा करने लगा!तब राज्धार्मा ने उससे उसका आने का प्रयोजनऔर नाम आदि पूछा!उत्तर में उसने इतना ही बताया की मेरा नाम गौतम है,मैं दरिद्र हूँ और धन कमाने के लिए समुद्र तक जाना चाहता हूँ!राज्धार्मा ने प्रसन्न हो कर कहा --अब आपको समुद्र तक जाने की कोई जरूरत नहीं है,यहीं आपका काम हो जाएगा1यहीं से धन लेकर घर जाना   

Wednesday, October 10, 2012

कान्हा गणेशा कि जोड़ी मिली,त्रिलोकी भ्रमण पर निकल पड़ी 

shri radha raman

Sunday, October 7, 2012

श्री कृष्ण की चेतावनी

                                श्री कृष्ण की चेतावनी          
वर्षों तक वन में घूम घूम ,बाधा विघ्नों को चूम चूम 
सह धुप घाम पानी पत्थर ,पांडव आये कुच्छ और निखर 
सौभाग्य न सब दिन होता है, देखे आये क्या होता है 

मैत्री की राह दिखाने को,सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को,भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान् हस्तिनापुर आये,पांडव का संदेसा लाये 

दो न्याय अगर तो आधा दो,पर इसमें भी यदि बाधा हो,
तो देदो केवल पांच गाँव,रखो अपनी धरती तमाम,
हम वहीँ ख़ुशी से खायेंगे,परिजन पे असी(शस्त्र )न उठाएंगे

दुर्योधन वह भी दे न सका,आशीष समाज की ले न सका
 उलटे हरि को  बाँधने चला,जो था असाध्य साधने चला
 जब नाश मनुज पर छाता है,पहले विवेक मर  जाता है

हरि ने भीषण हुंकार किया,अपना स्वरुप विस्तार किया
डगमग डगमग दिग्गज डोले,भगवान् कुपित हो कर बोले
जंजीर  बढ़ा अब साध मुझे,हाँ हाँ दुर्योधन बाँध मुझे

यह देख गगन मुझ में लय है,यह देख पवन मुझ में लय है
मुझ में विलीन झंकार सकल,मुझ में लय है संसार सकल
अमरत्व फूलता है मुझ में,संसार  झूलता है मुझमें

भूतल अटल पाताल देख ,गत  और अनागत काल देख
ये देख जगत का आदि सृजन,ये देख महाभारत का रण
मृतको से पटी हुई भू है,पहचान कहाँ इसमें तू है

अम्बर का कुंतल जाल देख,पद के नीचे पाताल देख
मुट्ठी में तीनों काल देख,मेरा स्वरुप विकराल देख
सब जन्म मुझी से पाते हैं,फिर लौट मुझी में आते हैं

जिव्हा से काढती ज्वाला सघन ,सांसो से पाता जन्म पवन
पर जाती है दृष्टि मेरी जिधर,हंसने लगती है सृष्टि उधर
मैं जभी मूंदता हूँ लोचन,छा जाता चारों ओर मरण

बांधने मुझे तू आया है,जंजीर बड़ी क्या लाया है
यदि मुझे बांधना चाहे मन,पहले तू बाँध अनंत गगन
सूने को साध न सकता है,वोह मुझे बाँध कब सकता है

हित वचन नहीं तूने माना मैत्री का मूल्य ना पहचाना
तो ले अब मैं भी जाता हूँ,अंतिम संकल्प सुनाता हूँ
याचना नहीं अब रण होगा,जीवन जय या कि मरण होगा

टकरायेंगे नक्षत्र निखर,बरसेगी भू पर वहानी प्रखर
फण शेषनाग का डोलेगा,विकराल काल मुख खोलेगा
दुर्योधन रण ऐसा होगा,फिर कभी नहीं जैसा होगा

भाई पर भाई टूटेंगे,विष बाण बूँद से छूटेंगे
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे,वायस  शृगाल सुख लूटेंगे
आखिर तू भूशायी होगा,हिंसा का प्रदायी होगा

थी सभा सन्न,सब लोग डरे चुप थे या थे बेहोश पड़े
केवल दो नर ना अघाते थे,ध्रतराष्ट्र विदुर सुख पाते थे
कर जोड़ करे प्रमुदित निर्भय,दोनों पुकारते थे जय,जय,जय

                                                                                    श्री राम धारी सिंह दिनकर