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Sunday, October 7, 2012

श्री कृष्ण की चेतावनी

                                श्री कृष्ण की चेतावनी          
वर्षों तक वन में घूम घूम ,बाधा विघ्नों को चूम चूम 
सह धुप घाम पानी पत्थर ,पांडव आये कुच्छ और निखर 
सौभाग्य न सब दिन होता है, देखे आये क्या होता है 

मैत्री की राह दिखाने को,सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को,भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान् हस्तिनापुर आये,पांडव का संदेसा लाये 

दो न्याय अगर तो आधा दो,पर इसमें भी यदि बाधा हो,
तो देदो केवल पांच गाँव,रखो अपनी धरती तमाम,
हम वहीँ ख़ुशी से खायेंगे,परिजन पे असी(शस्त्र )न उठाएंगे

दुर्योधन वह भी दे न सका,आशीष समाज की ले न सका
 उलटे हरि को  बाँधने चला,जो था असाध्य साधने चला
 जब नाश मनुज पर छाता है,पहले विवेक मर  जाता है

हरि ने भीषण हुंकार किया,अपना स्वरुप विस्तार किया
डगमग डगमग दिग्गज डोले,भगवान् कुपित हो कर बोले
जंजीर  बढ़ा अब साध मुझे,हाँ हाँ दुर्योधन बाँध मुझे

यह देख गगन मुझ में लय है,यह देख पवन मुझ में लय है
मुझ में विलीन झंकार सकल,मुझ में लय है संसार सकल
अमरत्व फूलता है मुझ में,संसार  झूलता है मुझमें

भूतल अटल पाताल देख ,गत  और अनागत काल देख
ये देख जगत का आदि सृजन,ये देख महाभारत का रण
मृतको से पटी हुई भू है,पहचान कहाँ इसमें तू है

अम्बर का कुंतल जाल देख,पद के नीचे पाताल देख
मुट्ठी में तीनों काल देख,मेरा स्वरुप विकराल देख
सब जन्म मुझी से पाते हैं,फिर लौट मुझी में आते हैं

जिव्हा से काढती ज्वाला सघन ,सांसो से पाता जन्म पवन
पर जाती है दृष्टि मेरी जिधर,हंसने लगती है सृष्टि उधर
मैं जभी मूंदता हूँ लोचन,छा जाता चारों ओर मरण

बांधने मुझे तू आया है,जंजीर बड़ी क्या लाया है
यदि मुझे बांधना चाहे मन,पहले तू बाँध अनंत गगन
सूने को साध न सकता है,वोह मुझे बाँध कब सकता है

हित वचन नहीं तूने माना मैत्री का मूल्य ना पहचाना
तो ले अब मैं भी जाता हूँ,अंतिम संकल्प सुनाता हूँ
याचना नहीं अब रण होगा,जीवन जय या कि मरण होगा

टकरायेंगे नक्षत्र निखर,बरसेगी भू पर वहानी प्रखर
फण शेषनाग का डोलेगा,विकराल काल मुख खोलेगा
दुर्योधन रण ऐसा होगा,फिर कभी नहीं जैसा होगा

भाई पर भाई टूटेंगे,विष बाण बूँद से छूटेंगे
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे,वायस  शृगाल सुख लूटेंगे
आखिर तू भूशायी होगा,हिंसा का प्रदायी होगा

थी सभा सन्न,सब लोग डरे चुप थे या थे बेहोश पड़े
केवल दो नर ना अघाते थे,ध्रतराष्ट्र विदुर सुख पाते थे
कर जोड़ करे प्रमुदित निर्भय,दोनों पुकारते थे जय,जय,जय

                                                                                    श्री राम धारी सिंह दिनकर 

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