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Saturday, October 13, 2012

विश्वासघाती गौतम की कथा भाग १

मध्य प्रदेश का एकगौतम नामक  ब्रह्मण था,जिसने वेद बिलकुल नहीं पढ़ा था एक दिन वह कोई संपन्न गाँव देख कर उसमे भीख मांगने के लिए गया!उस गाँव में एक डाकू रहता था जो बहुत ही धनि,ब्राह्मंभाक्त एवं दानीथा !ब्राह्मण ने उसी के घर जा कर भिक्षा की याचना की!डाकू ने ब्राह्मण को रहने के लिए एक घर देकर वर्ष भर निर्वाह करने के योग्य अन्न की भिक्षा का प्रबंध आर दिया!उसकी सेवा में एक नवयुवती दासी भी दे दी!
डाकू से यह सारी चीज़े पा कर गौतम बहुत ही प्रसन्न हुआऔर दासी के साथ आनंद पूर्वक रहने लगा !अब गौतम भी डाकुओं की तरह ही वन में विचरने वाले हंसों का शिकार करने लगा!धीरे धीरे दुष्टों की संगत में रह कर उसके सत्य,अहिंसा,दया आदि ब्रह्मनोचित सभी सद्गुण नष्ट हो गए और वह पूरा डाकू बन गया!इस प्रकार वहां उस गाँव में रहते हुवे उसे कई वर्ष बीत गए 
एक दिन उस गाँव में एक दूसरा ब्राह्मण आया जो की स्वाध्याय परायण,पवित्र,विनयी,वेदों का पारंगत विद्वान् और ब्रह्मचारी था!वह गौतम के ही गाँव का रहने वाला और उसका प्रिय मित्र था!शुद्र का अन्न नहीं खाता था,इसलिए उस डाकुओं से भरे उस गाँव में ब्राह्मण के घर की खोज करता हुआ सब और घूम रहा था!संयोगवश,घूमते घूमते वह गौतम के घर ही आ पहुंचा;इतने ही में गौतम भी वहां आ गया!ब्राह्मण ने देखा गौतम के कंधे पर मरे हुवे हंस की लाश है और हाथ में धनुष बाण है!उसका सारा शरीर खून से रंग गया है,देखने में वह राक्षस सा जान पड़ता है और ब्राहमानोचित सद्गुणों से भ्रष्ट हो चूका है!इस अवस्था में पड़े हुए गौतम को पहचान कर आगंतुक ब्राह्मण को बड़ा संकोच हुआ!उसने उसे धिक्कारते हुए कहा -'अरे!तू मोहवश यह क्या कर रहा है?ब्राह्मण हो कर डाकू कैसे हो गया?जरा अपने पूर्वजों को याद कर,उनकी कितनी ख्याति थी,वे कैसे वेदों के पारगामी थे और तू उन्ही के वंश में पैदा हो कर कुलकलंक निकला !अब भी तो अपने को पहचान और इन लुटेरों में रहना छोड़ दे !
अपने हितैषी  मित्र के इस प्रकार समझाने पर गौतम को शर्म आई और उसने अपने मित्र को विश्वास दिलाया की मैं कल से ही डाकू वृत्ति छोड़कर धन कमाने जाऊँगा!कल सुबह मैं तुम्हारे साथ ही रवाना हो जाऊंगा!ब्राह्मण दयालु था,गौतम के अनुरोध से उसके यहाँ ठहर गया,मगर वहां की किसी भी वास्तु को उसने हाथ से छुआ तक नहीं!यधपि वह बहुत भूखा भी था और भोजन करने की उससे प्रार्थना भी की गयी थी किन्तु किसी भी तरह वहां का अन्न ग्रहण करना उसने स्वीकार नहीं किया 
सवेरा होने पर गौतम अपने मित्र ब्राह्मण के साथ ही घर से धन कमाने के लिए चल दिया!जाते जाते वह एक दिव्य वन में पहुंचा,जो बड़ा ही रमणीय था!वहां  के सभी वृक्ष फूलों से भरे थे!इतने में ही उसकी नज़र एक विशाल बरगद के वृक्ष पर पड़ी जो चारों और मंडलाकार फैला हुआ था!उस मनोरम वृक्ष को देखकर गौतम बहुत प्रसन्न हुआ और निकट जा कर उसकी छाया में बैठ गया!पवित्र वायु के स्पर्श से उसके मन को बड़ी शान्ति मिली और वह सुख का अनुभव करता हुआ वहीँ लेट गया !
उसी वृक्ष पर एक राज्धार्मा नामक एक पक्षी रहता था!गौतम को उस समय बड़ी भूख लग रही थी इसलिए उस पक्षी को आया देख उसने उसे मार डालने के विचार से उसकी और देखा !
तब राज्धर्मा ने उससे कहा -विप्रवर !यह मेरा घर है मैं आपका स्वागत करता हूँ !  सूर्यास्त हो गया है रात में मेरा आतिथ्य स्वीकार कर के कल सुबह चले जाना मैं मह्रिषी कश्यप का पुत्र हूँ और मेरी माता दक्ष प्रजापति की पुत्री है! मैं ब्रह्मा जी का मित्र हूँ!आप जैसे गुणवान अतिथि का मैं स्वागत करता हूँ!
यह कहकर गौतम के  बैठने के लिए फूलों का आसन बना दिया!खाने के लिए बड़ी बड़ी मछलियाँ ला कर रख दी और उन्हें पकाने के लिए आग भी जला दी!भोजन कर के जब ब्राह्मण तृप्त हो गया तब पक्षी उसकी थकावट दूर करने के लिए अपने पंखों से हवा करने लगा!तब राज्धार्मा ने उससे उसका आने का प्रयोजनऔर नाम आदि पूछा!उत्तर में उसने इतना ही बताया की मेरा नाम गौतम है,मैं दरिद्र हूँ और धन कमाने के लिए समुद्र तक जाना चाहता हूँ!राज्धार्मा ने प्रसन्न हो कर कहा --अब आपको समुद्र तक जाने की कोई जरूरत नहीं है,यहीं आपका काम हो जाएगा1यहीं से धन लेकर घर जाना   

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